Monday, May 8, 2017

तो इसलिए और यूँ हुआ समुद्र मंथन।

देव और दैत्य आपस में सौतेले भाई हैं और निरंतर झगडते आ रहे हैं। महर्षी कश्यप की पत्नी अदिति से देव और दिति से दैत्य जन्म लिये। दिति की गलत क्षिक्षाओं का नतीजा और अदिति के पुत्रों से अपने संतान को आगे बनाने की होड में दैत्य गलत दिशा में चले गये और  देवताओं के कट्टर शत्रु बन गये। युगों तक लडते रहे, कभी दैत्य तो कभी देवताओं का पलडा भारी रहता था। दोनों देव और दानव तपस्या करते थे, दान पुण्य आदि श्रेष्ठ कर्म करते थे कभी ब्रह्मा जी से तो कभी महादेव से वर प्राप्त करते थे  और फिर एक ही काम एक दूसरे को नीचा दिखाना।

निरंतर लडाई झगडे से देवता दुखी हो गये तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से प्रार्थना की, कि वो कुछ करें। ब्रह्मा जी ने देवताओं को सागर मंथन की बात कह और उससे अमृत प्राप्त होने की बात बतलाई जिसे देवता पी लें, तो वो दानवों के हाथ मृत्यु को प्राप्त नहीं होंगे और यह  साथ में यह भी कहा कि सागर मंथन आसान नहीं है उसमें दानवों को भी शामिल करो और युक्ति पूर्वक अमृत को प्राप्त करो दानवों को सम्मिलित करने के कारण हैं एक तो इतना बडा काम अकेले और गुप्त तरीके से कर नहीं सकोगे, क्युँकि दानवों को पता चल जाएगा दूसरा इसमें श्रम बहुत लगेगा। ब्रह्मा जी की बात पर तब युक्ति पूर्वक देवताओं ने दानवों को सागर मंथन मिलकर करने की बात के लिये राजी किया और दानवों को सागर से बहुत से रत्न निकलने की बात कही, लेकिन अमृत की बात नहीं बतलाई. दानव सहमत हो गये और फिर उन्होंने कहा भाई पहले ही इस बात को तय कर लो कि पहला रत्न निकला तो कौन लेगा दूसरा किसका होगा, ताकि बाद में वाद विवाद न हो। देवता थोडे घबराये कि, कहीं पहली बार में अमृत निकल गया और दानवों के हाथ लगा गया तो? लेकिन फिर भगवान को मन ही मन नमस्कार कर उन्होंने विश्वास किया कि भगवान उनका कल्याण अवश्य करंगे और तय हो गया कि पहला रत्न निकलेगा वो दानवों को दूसरा देवताओं को और फिर इसी प्रकार से क्रम चलता रहेगा। मंथन के लिये रस्सी का काम करने के लिये देवताओं ने सर्पों के राजा वासुकी से प्रार्थना की और उसे भी रत्नों में भाग देने की बात कही गई, वासुकि नहीं माना, उसने कहा कि रत्न लेकर वो क्या करेगा? फिर देवताओं ने अलग से उसे समझाया और अमृत में हिस्सा देने कि बात कही तब वो तैयार हुआ।  सुमेरु पर्वत से प्रार्थना की गई उसको को मथनी बनने के लिये मनाया गया। सब तैयारी पूर्ण होने के बाद तय किये मापदंडों पर नियत दिन में सागर मंथन हुआ, लेकिन जैसे ही मदरांचल पर्वत को समुद्र में ऊतारा गया वो अपने भार के बल से सीधा सागर की गहराइयों में डूब गया और अपना घमंड प्रदर्शित किया, तब असुरों में बाणासुर इतना शक्तिशाली था, उसने मदरांचल पर्वत को अकेले ही अपनी एक हजार भुजाओं में उठा लिया और सागर से बाहर ले आया और मदरांचल का अभिमान नष्ट हो गया। देव और दानवों के प्राक्रम से खुश हो और ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर, भगवान श्री नारायण ने कच्छ्प अवतार लिया और पर्वत को अपनी पीठ पर रखा। सागर मंथन शुरु हुआ सागर मंथन और देव दानवों का प्राक्रम देखने स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सप्त ऋषि, आदि अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। सागर मंथन शुरु होने के बहुत दिनों के बाद सबसे पहले हलाहल विष निकला, जिसके जहर से देव दानव और तीनों लोकों के प्राणी, वनस्पति आदि मूर्छित होने लगे तब देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की और श्री विष्णु ने कहा इससे रुद्र ही बचा सकते हैं। तब भगवान रुद्र ने वो जहर पी लिया लेकिन गले से नीचे नहीं ऊतरने दिया। हलाहल विष से उनका कंठ नीला हो गया और उसके बाद से ही वे देवाधिदेव महादेव कहलाए और गला नीला पड जाने के कारण नीलकंठ नाम से जाने और पूजे गये। पुन: मंथन शुरु हुआ, भगवान शंकर के मस्तक पर विष के प्रभाव से गर्मी होने लगी तब मंथन के समय ही चंद्रमा ने अपने एक अंश से सागर में प्रवेश किया और साथ में शीतलता लिये हुए बाल रूप में प्रकट हुआ और महादेव की सेवा में उपस्तिथ हुआ। भगवान शिव उसके इस भक्ति पर भाव पर बहुत खुस हुये और उसे हमेशा के लिये अपने मस्तक पर बाल चंद्र के रूप में शीतलता प्रदान करने के लिये सुशोभित कर दिया। फिर रत्न रूप में कामधेनु गाय निकली और दानवों के भाग की थी, जिसे उन्होंने बिना गुण बिचारे सोचा कि गाय का हम क्या करंगे और उस गाय को सप्त्ऋषीयों को दान में दे दिया अब बारी थी देवताओं की लेकिन रत्न में प्रकट हुई महालक्ष्मी। देवताओं और दानवों ने उनकी स्तुति की और सागर ने अपने एक अंश से पृकट होकर महालक्ष्मी जी को भगवान विष्णु को कन्यादान किया और वो श्री विष्णु के वाम भाग में विराजमान हो गई। फिर ऐरावत हाथी देवताओं के भाग में आया इसके बाद कौस्तुभ मणी और अन्य रत्न निकले। और जब दानवों के भाग में उच्चेश्रवा नामक घोडा आया जो वेद मंत्रों से भगवान की स्तुति करने लगा तब दानवों ने अभिमान पूर्वक देवताओं को दे दिया बोले रख लो, वेद बोलने वाला तुम्हारे ही काम आएगा हमें इसकी जरुरत नहीं है। फिर मदिरा निकली वो दानवों के भाग की थी और वो उसे पा के और पी के वो बहुत प्रसन्न हो गये। दानव मदिरा पान से बहुत आनंदित हो गये थे और जब नशा थोडा कम हुआ तो पुन: मंथन शुरु किया इसके बाद देवताओं की बारी थी और अमृत कलश के साथ भगवान के अंशावतार श्री धनवंतरि अवतरित हुए। लेकिन दानवों को लगा शायद इसमें भी मदिरा हो तो वो बलपूर्वक उस कलश को लेने की कोशिस करने लगे। बढते झगडे को निपटाने के लिये श्री नारायण ने पुन: समुद्र से ही मोहिनी रूप में अंशावतार लिया। सभी देव और दानवों ने मोहिनी को रत्नरुपी देवी जानकर प्रणाम किया तब मोहिनी ने कहा कि, आप लोग झग़डा क्युँ कर रहे हैं? और जब कारण जाना तो उसने कहा कि आप लोगों द्वारा ही तय नियमानुसार यह कलश तो वैसे देवताओं को मिलना चाहिये, लेकिन फिर भी यदि तुम चाहो तो मैं आप सभी में कलश के द्रव्य को बाँट कर आपका विवाद समाप्त कर देती हूँ, देवता समझ गये कि भगवान हैं और उनकी सहायता के लिये आए हैं अत: सबने मोहिनी के मीठे वचनों को मान लिया। मोहिनी ने सभी को कहा कि वो पंक्ति में बैठ जाएं, तब देव दानवों को अलग पंक्ति में बैठाकर कलश के द्रव्य को जो अमृत था पर दानव उसे मदिरा समझ रहे थे। मोहिनि ने कहा देवताओं की पंक्ति से आरम्भ करुंगी, क्युंकि आप लोग एक बार द्रव्य का पान कर ही चुके हो और यह कह कर देवताओं को बाँटना शुरु किया। दानवों में एक को नशा कुछ कम सा हो गया तो वो फिर से मदिरा पीने की चाहत में चुपके से देवताओं की पंक्ति में अंतिम स्थान पर बैठ गया और उसे भी अमृत मिल गया। सूर्य और चंन्द्रमा ने इस बात की शिकायत भगवान विष्णु से कर दी तब उन्होनें उस दानव पर छ्ल करने का दंड देने के लिये चक्र से प्रहार कर दिया और उस दानव का सर कटते ही भगदड मच गई लेकिन वो दानव अमृत पान के बाद भी जिवित रहा।

सभी दानव बोले क्या हुआ? क्युँ हुआ? कैसे हो गया? श्री हरि का चक्र प्रहार दानवों को यह बतलाने के लिये था कि धोखे से इस दानव ने अनाधिकार पूर्वक द्र्व्य पान किया था जब मोहिनी बांट रही थी तो धैर्य रखना चाहिये था, तथा अमृत पान के बाद देवता अब दानवों से ज्यादा शक्तिशाली हो गये है अत: अब दानव ईर्ष्या वश देवताओं से अकारण झगडा न करें। जिस दानव ने वेश बदलकर अमृत पान किया वो गलत था क्युँकि तय मापदंडो के आधार पर अमृत पर देवताओं का अधिकार था उसके बाद भी मोहिनी अमृत सब को बांट ही तो रही थी पंक्ति में एक तरफ से। दानवों को अब पता चला कि कलश में मदिरा नहीं वल्कि अमृत है तब कुछ दानव मोहिनी से कलश छिन लेने के प्रयास में आगे आये मोहिनी बचा हुआ अमृत कलश देवराज इंद्र को दे कर चली गई और कहा तुम लोग ही आपस में निपटारा कर लो। ईधर उस दानव ने जिसने अमृत पी लिया था उसका सर राहु और धड केतु नाम से जिवित रहा और बाद में उसे छाया ग्रह के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया

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