Thursday, May 11, 2017

और भगवान विष्णु को लेना पड़ा रामावतार।


एक बार नारदजी को अपनी भक्ति पर अभिमान आ गया और वो हर लोक में जा जा के अपनी भक्ति और तपस्या का बखान करते थे। नारद ने अपने पिता ब्रह्मदेव को बतलाया तब उन्होंने कहा ने नारद अपनी भक्ति का बखान मत करना यह अच्छा नहीं है।

नारद कैलाश में गये और वहाँ  भोलेनाथ को बताया उन्होंने भी कहा नारद आप हर जगह इस बात को कह रहे हो अच्छा नहीं है। लेकिन नारद अभिमान में थे कि समस्त लोकों में उन जैसा कोई नारायण भक्त नहीं है. कैलाश से लौटते हुये नारद वैकुंठ की ओर चले तब नारद के अभिमान को नष्ट करने के लिये भगवान विष्णु ने एक माया नगरी का निर्माण किया। नारद जहाँ से निकले तब मार्ग में उन्हें एक सुंदर नगर दिखाई दिया। नारद ने सोचा मैं सभी लोकों और नगर में गया हूँ पर यह इस नगर में नहीं गया अत: यहाँ जा के देखता हूँ कौन सा नगर है। नारद वहाँ पहुँचे, बहुत सुंदर नगर था इंद्र्लोक से भी सुंदर वहाँ के राजा ने नारदजी का सम्मान किया, महल में बैठाया और स्वयँ सपरिवार नारद जी को नमस्कार किया। जलपान आदि के बाद कहा, महर्षि आप तो चिरिंजीवी, त्रिकालदर्शी महात्मा हैं मेरी पुत्री का स्वयँवर दो दिनों के बाद रखा है वैसे तो मैंने समस्त तीनों लोकों में खुला आमंत्रण दिया है कि जिसे भी मेरी पुत्री चाहेगी उसी से विवाह किया जायेगा परंतु यदि आप मुझे बता दें कि दामाद कैसा होगा तो मुझे आत्म संतोष हो जायेगा। नारद जी ने उनकी पुत्री के हस्तरेखा  देख कर कहा कि आपकी पुत्री बहुत भाग्यशाली है, इसे चिरिंजीवी, अजर अमर, सुंदर और शतोगुणी प्रधान वर मिलेगा। जिसकी किर्ति समस्त लोकों में हो और नारद जी उस कन्या के रूप को देख कर मोहित हो गये उन्हें अपने आप में भी वो सब गुण  नजर आये जो उसकी हस्तरेखा बता रही थी। इसके बाद  नारद जी ने बिदा ली और वैकुंठ लोक को अपनी भक्ति का बखान करने निकल पढे। रास्ते में विचार किया की मुझ मे सारे गुण है लेकिन मैं संन्यासी हूँ। अब मुझे भी सप्तऋषियोँ की तरह अपनी ग्रहस्थी बसा लेनी चाहिये। विवाह के लिये अभी जिस कन्या को देखा वो उपयुक्त है। लेकिन एक कमी है वो है मेरा रूप पर उसकि चिंता की कोई बात नहीं क्युँकि मैं भगवान का भक्त हूँ और अभी जा के भगवान विष्णु से उनका रूप माँग लुंगा और उन्हें अपने भक्त को देना ही पडेगा। नारद थोडे समय बाद वैकुंठ पहुँचे भगवान ने स्वागत किया पूछा बहुत जल्दी में हो क्या बात है. नारद ने कहा भगवन एसे ही बहुत दिन हो गये आप से मिले हुये, भगवान भोलेनाथ से मिलकर आ रहा हूँ और अब आप से मिलने चला आया। अब वैसे भी मेरे पास समय है क्युँकि तपस्या और भक्ति मार्ग की उच्च अवस्था भी प्राप्त कर ली है, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड और भक्ति में भी अब मैं चरम सीमा पर पहुँच चुका हूँ। माया को भी जीत चुका हूँ अब सोच रहा हूँ मैं भी ग्रहस्थी बन जाऊँ। रास्ते में एक कन्या को देख कर आ रहा हूँ जो सभी गुणों से युक्त है आपसे क्या कहुँ भगवन आप तो सर्वज्ञ हैं और मैं तो आपका सब से बडा भक्त भी हूँ अत: आप मेरी सहायता किजिये। भगवान ने मुस्कुराते हुये कहा नारद तुम ग्रहस्थ बनने की चाह में लगते हो कन्या के सुंदर रूप पर रोगग्रस्थ हो गये हो अत: मैं अवश्य तुम्हारे इस रोग को दूर कर दुंगा तुम चिंता मत करो। तुम मेरे सबसे बडे भक्त हो तो मुझे भी एक चिकित्सक की तरह से ही अपने भक्त के रोग को दूर करना होगा। नारद भगवान के इन वाक्यों को नहीं समझ पाये और बोले प्रभु मेरा रोग दूर करने का उपाय है आप मुझे अपना हरी रूप दे दीजिये ताकि मैं सुंदरता में बिल्कुल आप जैसा ही दिखुं ताकि वो कन्या  मुझे वरण कर ले. भगवान ने कहा नारद मैं तुम्हारा चिकित्सक हूँ इसलिये मैं रोग को ठीक करुंगा तुम चिंता मत करो. नारद ने कहा प्रभु मुझे आज्ञाँ दिजिये अब मैं चलता हूँ। नारद जी खुश थे की अब वो भी भगवान विष्णु जैसे  ही हो गये हैं और स्वयंवर के दिन पहुँचे। वहाँ तीनों लोक से बहुतसे लोग आये थे, राजा ने सभी को बैठने को आसन दिये। नारद जी ने अनुमान लगाया पिछली बार राजा ने मुझे महर्षि कह कर चरण धोये पर, आज सिर्फ सामान्य तरीके से प्रणाम करके आसन दिया, इसका मतलब भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया तभी तो ये राजा आज मुझे नहीं पहचान सका। स्वयँवर आरम्भ हुआ कन्या अपने लिये वर का चयन  करने के लिये एक तरफ से आगे बढी और नारद जी एक दो बार अपनी जगह से खडे हुये कन्या का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिये और जैसे ही वो पास से निकली तो नारद जी अपनी गर्दन को आगे की तरफ झुका के खडे हो गये। लेकिन कन्या आगे बढ गई और एक अन्य दिव्य पुरुष के गले में जयमाला डाल दी। कन्या का विवाह उनसे संमपन्न  हुआ विवाह के बाद दो शिव गण जो वहाँ आये थे, वो नारद जी को देख कर बोले आप क्युँ बार–बार ऊछल रहे थे। नारद को उनकी बात पर बहुत गुस्सा आया और बोले मूर्खो हँस क्युँ रहे हो जानते नहीं मैं कौन हूँ? वो ये तो पता नहीं कौन हो पर देखने पर लगते एकदम बंदर हो, वो बंदर जो मृत्युलोक पर पाये जाते हैं. नारद ने अपना मुँह जल में देखा तो वानर का सा मुँह का नजर आया। शिव गण फिर बोले क्युँ लग रहे हो ना मृत्युलोक के बंदर और पुन: जोर से हँसें तो नारद जी को और अधिक क्रोध आ गया और उन्हें श्राप दे दिया कि तुम दोनों शिव गण हो कैलाश में रहते हो और मेरा उपहास करते हो, नारद का उपहास करके कहते हो मृत्युलोक का बंदर इसलिये तुम्हें श्राप देता हूँ तुम मृत्युलोक में जाओगे और वो भी राक्षस कुल में, और फिर बंदर ही तुमको पीटेंगे। इसके बाद नारद जी गुस्से से वैकुंठ लोक की ओर तेजी से बडे, उन्हें भगवान विष्णु पर बहुत गुस्सा आ रहा था। रास्ते में वही कन्या और वर भी विवाह के बाद जा रहे थे. जैसे ही नारद जी बारात से आगे निकले वर ने पूछ लिया अरे नारद जी कहाँ को चले? इस प्रश्न से ही नारद को गुस्सा आ गया और थोडा रुक के बोले ओह तो आप हैं अब मैंने पहचान लिया है आप को। आप विष्णु भगवान हैं। इतना बडा खेल वो भी मेरे साथ मैंने आपको इस कन्या के बारे में बतलाया, जानकारी दी और आपने इस कन्या के रूप गुणों  की चर्चा मुझ से ही सुनकर मुझे ही छला, और खुद रूप बदल कर दुसरा विवाह इस कन्या से किया। इसके बाद नारद जी ने श्री हरि को भी श्राप दे दिया, जैसे मैं पत्नी के  वियोग में हूँ वैसे ही आप को भी श्राप देता हूँ कि आप भी पत्नी के वियोग में दुखी रहेंगे वो भी मृत्युलोक में क्युँकि असली वियोग तो क्या होता है वहीं पता चलेगा और आप पत्नी के वियोग में मेरी तरह ही भटकेंगें। भगवान ने कहा नारद आपने  श्राप दिया इसे स्वीकार करता हूँ और फिर अपनी माया हटा दी तब नारद ने देखा कुछ भी नहीं था ना वो नगर, न वो कन्या. नारद ने कहा यह क्या हुआ? भगवान ने कहा तुमने ही कहा था नारद की माया को जीत चुके हो इसलिये तुम्हारी परीक्षा ले रहा  था। नारद ने श्री हरि से क्षमा माँगी और भगवान विष्णु अदृश्य हो गये। इसी बीच वहाँ शिव गण भी आये और उन्होनें नारद जी से अपराध क्षमा करने को कहा। नारद ने कहा श्राप मिथ्या तो नहीं होगा, अत: राक्षस तो तुम होओगे ही लेकिन इतना और कर देता हूँ कि तुम इतने प्राक्रमी राक्षस होओगे कि स्वयं भगवान श्री हरि ही तुम्हारे उद्धार के लिये आएँगे।

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